काशी, जिसे घाटो का शहर और वाराणसी के नाम से भी जाना जाता है। यह भारत का एक प्राचीन और पवित्र शहर है। यह शहर गंगा नदी के किनारे बसा है। पौराणिक कथा के अनुसार कहते इस शहर को स्वंय भगवान शिव ने अपने त्रिशुल पर बसाया था, इसलिए इसे भगवान शिव की नगरी भी कहा जाता है और हिन्दुओं के लिए यह एक मो़क्ष की नगरी है।
काशी विश्वनाथ मंदिर, जो भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग में से एक है यहा का प्रमुख धार्मिक स्थल है।
काशी कई रूपों में प्रतीकात्मक है और इस कारण इसे ब्रह्माण्ड का आध्यात्मिक केंद्र भी माना जाता है। काशी में 72000 मंदिर थे। मानव शरीर में नाडियों की संख्या भी इतनी ही होती है। काशी का उल्लेख हमारे पुराणों व वेदों – स्कन्ध पुराण, ऋग्वेद, शिवपुराण, रामायण, व महाभारत में विस्तार से बताया गया है। स्कन्ध पुराण में लगभग 15000 श्लोको में काशी नगर की महिमा का गुन-गान किया गया है।
काशी अपने मंदिर, शक्ति पीठ, घाटो, गंगा आरती व धार्मिक कार्यो के लिए जाना जाता हैं।
Kashi Vishwanath Temple/ काशी विश्वनाथ मंदिर की पौराणिक कथा
कथा के अनुसार एक बार विष्णु जी और ब्रह्मा जी में इस बात को लेकर बहस होने लगी कि दोनों में से कौन अधिक शक्तिशाली या श्रेष्ठ है। इस विवाद को सुलझाने के लिए भगवान शिव पहुंच गए। महादेव ने एक बहुत ही विशाल प्रकाश स्तंभ या कहा जाए कि एक ज्योतिर्लिंग का रूप धारण कर लिया। इसके पश्चात् उन्होंने भगवान ब्रह्मा और विष्णु को इसके प्रारंभिक छोर व अंतिम छोर का पता लगाने को कहा,
इतना सुनते ही ब्रह्मा हंस पर सवार होकर आकाश की तरफ उड़कर स्तंभ के ऊपरी सिरे का पता लगाने के लिए चले जाते हैं। वहीं दूसरी तरफ भगवान विष्णु एक शूकर का रूप धारण कर लेते हैं और पृथ्वी के अंदर उस स्तंभ के नीचले सिरे की खोज में निकल पड़ते हैं। ऐसा कहा जाता है कि कई युगों तक दोनों इस खोज में लगे ही रह गए। अंत में भगवान विष्णु वापस आए और अपनी हार स्वीकार कर ली। मगर दूसरी तरफ ब्रह्माजी अपनी हार मानने के बजाय झूठ कहा कि उन्होंने स्तंभ का ऊपरी सिरा देख लिया है। इस झूठ से क्रोधित होकर भगवान शिव ब्रह्माजी को श्राप दे देते हैं कि कभी उनकी पूजा नहीं होगी। शायद यही वजह है कि ब्रह्मा की किसी मन्दिर में पूजा नहीं की जाती है। माना जाता है कि इस स्तंभ की वजह से पृथ्वी पर जहां-जहां से दिव्य परखाश निकला वो स्थान आगे चलकर 12 ज्योतिर्लिंग के रूप में पूजे गए।
काशी विश्वनाथ मंदिर का इतिहास /आक्रमण
काशी विश्वनाथ मंदिर का जीर्णाेद्धार 11वीं सदी के आसपास माना जाता है। 11वीं सदी में महाराजा हरिश्चंद्र जी ने इस मंदिर का जीर्णाेद्धार कराया था।
लेकिन इस मंदिर के जीर्णाेद्धार के मात्र 94 वर्ष बाद ही सन 1194 में मोहम्मद गोरी ने भारत पर आक्रमण किया था और हिंदुओं के तमाम धार्मिक स्थलों को क्षति क्षति पहुंचाई थी जिनमें से एक काशी विश्वनाथ मंदिर पर था।
1194 ईस्वी में मोहम्मद गोरी ने इस मंदिर पर आक्रमण करके इसे गिरवा दिया था।कहा जाता है कि मोहम्मद गौरी के आक्रमण के पश्चात एक बार फिर से इस मंदिर का निर्माण कराया गया था लेकिन लगभग 1447 में इसे एक बार फिर से महमूद शाह ने तुड़वा दिया जो उस समय जौनपुर का सुल्तान था।
दोबारा क्षति पहुंचाए जाने के बाद भी सन 1585 में राजा टोडरमल से सहायता लेकर पंडित नारायण भट्ट ने इसका पुनर्निर्माण कराया। भारतीय इतिहासकार बताते हैं कि लगभग सन 1632 ईस्वी में जब यहां मुगल साम्राज्य का अधिकार था उस समय शाहजहां के नेतृत्व में फिर से सेना की एक टुकड़ी भेजी गई ताकि इस मंदिर को तोड़ा जा सके लेकिन काशी के हिंदुओं के प्रतिरोध के कारण शाहजहां की सेना अपने मकसद में कामयाब नहीं हो सकी। परिणाम स्वरूप शाहजहां की सेना ने अवसर पाकर काशी के अन्य 63 मंदिरों पर आक्रमण कर उन्हें तोड़ दिया।
लेकिन एक बार नाकामयाब होने के बाद भी मुगल सल्तनत ने अपनी बर्बरता नहीं छोड़ी और एक बार फिर से औरंगजेब के कार्यकाल में औरंगजेब ने इस मंदिर को तोड़ने के लिए अपनी सेनाओं को आदेश दिए।
18 अप्रैल 1669 ईस्वी को औरंगजेब ने अपनी सेनाओं को आदेश दिया कि काशी विश्वनाथ मंदिर को तोड़ दिया जाए और फरमान जारी किया गया की वहां के ब्राह्मणों को मुसलमान बना दिया जाए। औरंगजेब का यह फरमान आज भी कोलकाता में स्थित एशियाटिक लाइब्रेरी में सुरक्षित रखा गया है।
वर्तमान काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण सन 1780 में महारानी अहिल्याबाई होल्कर द्वारा कराया गया था।
इसके पश्चात सन 1853 में वर्तमान काशी विश्वनाथ मंदिर का पुनर्निर्माण महाराजा रणजीत सिंह ने करवाया था।
महाराजा रणजीत सिंह के कार्यकाल में इस मंदिर के निर्माण में लगभग 1000 किलोग्राम शुद्ध सोने का इस्तेमाल किया गया था। जो आज भी मंदिर के उपरी भाग में देखने को मिलता है।
काशी के अन्य प्रमुख मंदिर
काल भैरव मंदिर
काल भैरव को काशी के कोतवाल रक्षक माना जाता है। एक कथा के अनुसार भगवान शिव ने समय को नियंत्रित करने के लिए इस स्वरूप् को प्रकट किया था। कहा जाता है कि काशी में रहने के लिए या काशी विश्वनाथ भगवान के दर्शन करने से पहले काल भैरव की अनुमती जरूरी होती है।
अत्रपूर्णा देवी मंदिर-
कथा के अनुसार कहा जाता है कि किसी समय धरती पर अन्न की किल्लत हो गई. इसके भू-लोग पर हाहाकार मच गया। उस समय लोगों ने त्रिदेव की उपासना करके उसने अन्न संकट को दूर करनी की प्रार्थना की। मान्यता है कि उसके बाद मां पार्वती भगवान शिव के साथ पृथ्वी लोक पहुंचीं। जिसके बाद मां पार्वती ने माता अन्नपूर्णा का रूप धारण कर भगवान शिव को दान में अन्न दिया। भगवान शिव में उस अन्न को पृथ्वी वासियों में वितरित कर दिया। तब जाकर पृथ्वी से अन्न का संकट खत्म हुआ।
वाराह देवी शक्तिपीठ-
माँ वाराही देवी को काशी की क्षेत्र पालिका (नगर रक्षक) भी कहा जाता है। क्योंकि जिस तरह कालभैरव दिन के समय काशी की रक्षा करते है उसी तरह माँ वाराही रात के समय काशी की रक्षा करती है। इसलिए इन्हे गुप्त वराही भी कहा जाता है। मां दुर्गा के 51 शक्तिपीठों में से एक है। माँ वाराही देवी का मंदिर वाराणसी के दशाश्वमेध स्थान के मानमंदिर घाट के पास ही गलियों के बीच में स्थित है। वही गलियों के बीच में ही माँ वराही की मूर्ति भी स्थापित की गई है। इस मंदिर की कुछ विशेषताएं तथा मान्यताएं है।
यह मंदिर सुबह 4 बजे से 9 30 बजे तक खुलता है। जिसमे वाराही माता की मूर्ति जमीन से एक मंजिल नीचे स्थित है। किसी भी भक्त को माँं वाराही के गर्भ गृह में जाने की अनुमति नहीं है। देवी की मूर्ति के ठीक ऊपर की छत एक झरोखा बनाया गया है उसी झरोखे से माँ वराही के दर्शन संभव होते है। माना जाता है की माता रात होते ही काशी की कोतवाली के लिए चल पड़ती है।
विशालाक्षी देवी मंदिर-
यह 51 शक्तिपीठों में से एक है। यहा माता का कर्ण कुण्डल गिरा था।
नेपाली मंदिर-
यह मंदिर आपको सीधे 19 वीं सदी के काल में ले जाती है।
बहुत पहले नेपाल के राजा राणा बहादुर शाह ने वाराणसी में निर्वासन ले लिया। उन्होंने ही निश्चय किया कि वह नेपाल की राजधानी काठमांडू में स्थापित पशुपतिनाथ मंदिर की ही तरह हूबहू एक शिव मंदिर यहाँ भी बनवाएंगे। हालाँकि उनके निर्वासन के दौरान मंदिर का निर्माण कार्य इनके काल में शुरू तो हो गया पर उनके पुत्र गिरवान युद्धा बिक्रम शाह देव ने इसे बनवा कर पूरा किया। इसे पूरा होने में पूरे 30 सालों का समय लगा।
नेपाली मंदिर वाराणसी के ललिता घाट के पास ही स्थित है। ललिता घाट में शिव मंदिर के साथ-साथ ललिता गौरी मंदिर भी स्थापित है।
संकट मोचन हनुमान मंदिर-
यह भगवान हनुमान को समर्पित है और “संकट हरने वाले” के रूप में प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि स्वंय गोस्वामी तुलसीदास ने इस मंदिर की स्थापना की थी।
काशी के प्रमुख घाट और उनके पीछे की कहानियाँ
दशाश्वमेध घाट-
कहा जाता है कि भगवान ब्रह्मा ने यहाँ दस अश्वमेध यज्ञ किए थे। यह घाट गंगा आरती के लिए प्रसिद्ध है, जिसमें हजारों दीपों की रोशनी और मंत्रोच्चार से पूरा वातावरण आध्यात्मिक हो उठता है।
मणिकर्णिका घाट-
कहा जाता है कि माता पार्वती के कान की मणि यहाँ गिर गई थी, जब भगवान शिव के द्वारा खोजने जाने भी जब नही मिला तब भगवान शिव ने इस जगह को शमशान होने का श्राप दे दिया फिर भगवान विष्णु के आग्रह पर इस जगह को वरदान दिया की जिसका भी शव यहा जलेगी उसे मोक्ष की प्राप्ती होगी। इसलिए दुर दुर से लोग यहा अपने परिजन का शव अंतिम संस्कार के लिए लेकर आते है। माना जाता है कि भगवान शिव स्ंवय शव के कानो में तारक-मंत्र देते है।
अस्सी घाट-
यह वह स्थान है जहाँ भगवान शिव ने असि नदी के संगम पर तपस्या की थी।
अन्य प्रसिद्ध स्थल
- सारनाथ- यह वह पवित्र स्थल है जहाँ भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्ति के बाद पहला उपदेश दिया था। यह स्थान हिंदू, बौद्ध और जैन संस्कृति के मिलन का अद्भुत केंद्र है।
- तुलसी मानस मंदिर-यहाँ गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की थी। मंदिर की दीवारों पर पूरी रामचरितमानस अंकित है, जो भक्तों को प्रभु श्रीराम की लीला स्मरण कराता है।
- रामनगर किला-यह काशी नरेश का ऐतिहासिक किला है। दशहरे के दौरान यहाँ की रामलीला विश्वप्रसिद्ध है और महीनों तक चलती है।
काशी का हिंदू संस्कृति में महत्व
- मोक्षभूमि काशी को मोक्ष की नगरी माना जाता है। मृत्यु यहाँ जीवन की पूर्णता मानी जाती है।
- शिव और शक्ति का संतुलन काशी वह स्थान है जहाँ भगवान शिव और माँ शक्ति दोनों की उपस्थिति समान रूप से है।
- सांस्कृतिक धरोहर संगीत, नृत्य, साहित्य और वेदों का केंद्र रहा काशी भारतीय संस्कृति का जीवित संग्रहालय है।
काशी कोई साधारण नगर नहीं है, यह अनादि काल से जीवित एक आध्यात्मिक चेतना है। यहाँ के मंदिरों की घंटियाँ, घाटों की गूंजती आरती, देवी-देवताओं की उपस्थिति, और पवित्र गंगा की बहती धारा, जीवन और मृत्यु दोनों का गहराई से बोध कराती है।
यदि आपने काशी नहीं देखा, तो आपने भारतीय अध्यात्म का सार नहीं जाना।
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