Mahabharat Characters
कौरव
एक बार गांधारी ने महर्षि वेदव्यास की खूब सेवा की। प्रसन्न होकर उन्होंने गांधारी को सौ पुत्रों की माता होने का वरदान दिया। समय आने पर गांधारी को गर्भ ठहरा, लेकिन वह दो वर्ष तक पेट में रुका रहा। घबराकर गांधारी ने गर्भ गिरा दिया। गांधारी केपेट से लोहे के समान मांस का गोला निकला। तब महर्षि वेदव्यास वहां पहुंचे और उन्होंने कहा कि तुम सौ कुण्ड बनवाकर उन्हें घी से भर दो और उनकी रक्षा के लिए प्रबंध करो।
इसके बाद महर्षि वेदव्यास ने गांधारी को उस मांस के गोले पर ठंडा जल छिड़कने के लिए कहा। जल छिड़कते ही उस मांस के गोले के 101 टुकड़े हो गए। महर्षि की बात मानकर गांधारी ने उन सभी मांस के टुकड़ों को घी से भरे कुंडों में रख दिया। फिर महर्षि ने कहा कि इन कुंडों को दो साल के बाद खोलना। समय आने पर उन कुंडों से पहले दुर्याेधन का जन्म हुआ और उसके बाद अन्य गांधारी पुत्रों का। गांधारी के अन्य 99 पुत्रों के नाम इस प्रकार हैं-
2- दुःशासन, 3- दुस्सह, 4- दुश्शल, 5- जलसंध, 6- सम, 7- सह, 8- विंद, 9- अनुविंद, 10- दुद्धर्ष, 11- सुबाहु, 12- दुष्प्रधर्षण, 13- दुर्मुर्षण, 14- दुर्मुख, 15- दुष्कर्ण, 16- कर्ण, 17- विविंशति, 18- विकर्ण, 19- शल, 20- सत्व, 21- सुलोचन, 22- चित्र, 23- उपचित्र, 24- चित्राक्ष, 25- चारुचित्र, 26- शरासन, 27- दुर्मुद, 28- दुर्विगाह, 29- विवित्सु, 30- विकटानन, 31- ऊर्णनाभ, 32- सुनाभ, 33- नंद, 34- उपनंद, 35- चित्रबाण, 36- चित्रवर्मा, 37- सुवर्मा, 38- दुर्विमोचन, 39- आयोबाहु, 40- महाबाहु 41- चित्रांग, 42- चित्रकुंडल, 43- भीमवेग, 44- भीमबल, 45- बलाकी, 46- बलवर्द्धन, 47- उग्रायुध, 48- सुषेण, 49- कुण्डधार, 50- महोदर
51- चित्रायुध, 52- निषंगी, 53- पाशी, 54- वृंदारक, 55- दृढ़वर्मा, 56 – दृढ़क्षत्र, 57- सोमकीर्ति, 58- अनूदर, 59- दृढ़संध, 60- जरासंध, 61- सत्यसंध, 62- सदः सुवाक, 63- उग्रश्रवा, 64- उग्रसेन, 65- सेनानी, 66- दुष्पराजय, 67- अपराजित, 68- कुण्डशायी, 69- विशालाक्ष, 70- दुराधर 71- दृढ़हस्त, 72- सुहस्त, 73- बातवेग, 74- सुवर्चा, 75- आदित्यकेतु, 76- बह्वाशी, 77- नागदत्त, 78- अग्रयायी, 79- कवची, 80- क्रथन, 81- कुण्डी, 82- उग्र, 83- भीमरथ, 84- वीरबाहु, 85- अलोलुप, 86- अभय, 87- रौद्रकर्मा, 88- दृढरथाश्रय, 89- अनाधृष्य, 90- कुण्डभेदी, 91- विरावी, 92- प्रमथ, 93- प्रमाथी, 94- दीर्घरोमा, 95- दीर्घबाहु, 96- महाबाहु, 97- व्यूढोरस्क, 98- कनकध्वज, 99- कुण्डाशी, और 100-विरजा।
100 पुत्रों के अलावा गांधारी की एक पुत्री भी थी जिसका नाम दुशला था, इसका विवाह राजा जयद्रथ के साथ हुआ था।
अश्वत्थामा
महाभारत के अनुसार गुरु द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी से हुआ था। कृपी के गर्भ से अश्वत्थामा का जन्म हुआ। गुरु द्रोण ने भगवान शिव के समान पराक्रम वाला पुत्र प्राप्त करने के लिए भगवान शिव का कई वर्षों तक कठोर तपस्या कि तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने दर्शन देकर उन्हे वरदान दिया।
इसलिए अश्वत्थामा को भगवान शिव का ग्यारह रुद्रों भी कहा जाता है। अश्वत्थामा जन्म के साथ ही अपने माथे पर एक मणि के साथ पैदा हुए थे, जो उन्हे मनुष्यों से नीचे सभी जीवित प्राणियों पर शक्ति प्रदान करती है; यह उसे भूख, प्यास और थकान से बचाता है।
महाभारत के अनुसार, अश्वत्थामा का अर्थ है आवाज़ जो घोड़े से संबंधित है। ऐसा इसलिए कहा जाता है क्योंकि जब वह पैदा हुआ था तो वह घोड़े की तरह रोया था।
श्रीकृष्ण ने दिया अमर होने का श्राप – जब अश्वत्थामा ने सोते हुए द्रौपदी के पुत्रों का वध कर दिया, तब पांडव क्रोधित होकर उसे ढूंढने निकले। अश्वत्थामा को ढूंढते हुए वे महर्षि वेदव्यास के आश्रम पहुंचे। अश्वत्थामा ने देखा कि पांडव मेरा वध करने के लिए यहां आ गए हैं तो उसने पांडवों का नाश करने के लिए ब्रह्मास्त्र का वार किया। यह देख अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र चलाया। दोनों ब्रह्मास्त्रों की अग्नि से सृष्टि जलने लगी। सृष्टि का संहार होते देख महर्षि वेदव्यास ने अर्जुन व अश्वत्थामा से अपने-अपने ब्रह्मास्त्र लौटाने के लिए कहा।
अर्जुन ने तुरंत अपना अस्त्र लौटा लिया, लेकिन अश्वत्थामा को ब्रह्मास्त्र लौटाने का ज्ञान नहीं था। इसलिए उसने अपने ब्रह्मास्त्र की दिशा बदल कर अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा के गर्भ की ओर कर दी और कहा कि मेरे इस अस्त्र के प्रभाव से पांडवों का वंश समाप्त हो जाएगा। तब श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा से कहा कि तुम्हारा अस्त्र अवश्य ही अचूक है, किंतु उत्तरा के गर्भ से उत्पन्न मृत शिशु भी जीवित हो जाएगा।
ऐसा कहकर श्रीकृष्ण ने अश्वत्थामा को श्राप दिया कि समय के अंत तक पृथ्वी पर भटकते रहोगे। तुम्हारे शरीर से पीप व रक्त बहता रहेगा पर म्त्यु नहीं मिलेगी। इसके बाद अश्वत्थामा ने महर्षि वेदव्यास के कहने पर अपनी मणि निकाल कर पांडवों को दे दी और स्वयं वन में चला गया। अश्वत्थामा से मणि लाकर पांडवों ने द्रौपदी को दे दी और बताया कि गुरु पुत्र होने के कारण उन्होंने अश्वत्थामा को जीवित छोड़ दिया है।
विदुर
महात्मा विदुर का जन्म महर्षि वेदव्यास के आशीर्वाद से दासी के गर्भ से हुआ था। महाभारत के अनुसार विदुर धर्मराज (यमराज) के अवतार थे। एक ऋषि के श्राप के कारण धर्मराज को मनुष्य रूप से जन्म लेना पड़ा। विदुर नीतिकुशल थे। उन्होंने सदैव धर्म का साथ दिया।
शकुनि
शकुनि गांधारी का भाई था। धृतराष्ट्र व गांधारी के विवाह के बाद शकुनि हस्तिनापुर में ही आकर बस गए। यहां वे कौरवों को सदैव पांडवों के विरुद्ध भड़काते रहते थे। पांडवों का अंत करने के लिए शकुनि ने कई योजनाएं बनाई, लेकिन उनकी कोई चाल सफल नहीं हो पाई।
ऐसे हुई मृत्यु – युद्ध में सहदेव ने वीरतापूर्वक युद्ध करते हुए शकुनि और उलूक (शकुनि का पुत्र) को घायल कर दिया और देखते ही देखते उलूक का वध दिया। अपने पुत्र का शव देखकर शकुनि को बहुत दुःख हुआ और वह युद्ध छोड़कर भागने लगा। सहदेव ने शकुनि का पीछा किया और उसे पकड़ लिया। घायल होने पर भी शकुनि ने बहुत समय तक सहदेव से युद्ध किया और अंत में सहदेव के हाथों मारा गया।
गांधारी
गांधारी गांधारराज सुबल की पुत्री थी। जब भीष्म ने सुना कि गांधार देश की राजकुमारी सब लक्षणों से संपन्न है और उसने भगवान शंकर की आराधना कर सौ पुत्रों का वरदान प्राप्त किया है। तब भीष्म ने गांधारराज के पास अपना दूत भेजा। पहले तो सुबल ने अंधे के साथ अपनी पुत्री का विवाह करने में बहुत सोच-विचार किया, लेकिन बाद में हां कह दिया। गांधारी को जब पता चला कि उसका होने वाला पति जन्म से अंधा है तो उसने भी आजीवन आंखों पर पट्टी बांधने का निर्णय लिया।
कुंती व माद्री
यदुवंशी राजा शूरसेन की पृथा नामक पुत्री थी। इस कन्या को राजा शूरसेन ने अपनी बुआ के संतानहीन लड़के कुंतीभोज को गोद दे दिया था। कुंतीभोज ने इस कन्या का नाम कुंती रखा। विवाह योग्य होने पर राजा कुंतीभोज ने अपनी पुत्री के लिए स्वयंवर का आयोजन किया। स्वयंवर में कुंती ने राजा पांडु को वरमाला डालकर अपना पति चुना। कुंती के अलावा पांडु की एक और पत्नी थी, जिसका नाम माद्री था। यह मद्रदेश की राजकुमारी थी।
द्रौपदी
पांचाल देश के राजा द्रुपद ने याज नामक तपस्वी से यज्ञ करवाया, जिससे उस यज्ञवेदी से एक सुंदर कन्या उत्पन्न हुई। तभी आकाशवाणी हुई कि इस कन्या का जन्म क्षत्रियों के संहार के लिए हुआ है। द्रुपद ने कन्या का नाम द्रौपदी रखा। द्रौपदी के विवाह के लिए द्रुपद ने स्वयंवर का आयोजन किया। अर्जुन ने स्वयंवर की शर्त पूरी कर द्रौपदी से विवाह कर लिया। जब पांडव द्रौपदी को लेकर अपनी माता कुंती के पास पहुंचे तो उन्होंने बिना देखे ही कह दिया कि पांचों भाई आपस में बांट लो। तब द्रौपदी ने पांचों भाइयों से विधिपूर्वक विवाह किया।
इसलिए मिले पांच पति – महाभारत के अनुसार द्रौपदी पूर्व जन्म में ऋषि कन्या थी। विवाह न होने से दुःखी होकर वह तपस्या करने लगी। उसकी तपस्या से भगवान शंकर प्रसन्न हो गए और उसे दर्शन दिए तथा वर मांगने को भी कहा। भगवान के दर्शन पाकर द्रौपदी बहुत प्रसन्न हो गई और उसने अधीरतावश भगवान शंकर से प्रार्थना की कि मैं सर्वगुणयुक्त पति चाहती हूं। ऐसा उसने पांच बार कहा। तब भगवान ने उसे वरदान दिया कि तूने मुझसे पांच बार प्रार्थना की है इसलिए तुझे पांच भरतवंशी पति प्राप्त होंगे।
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