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Mahabharat Characters – I

Mahabharat Characters

mukku By mukku Last updated: September 13, 2024 14 Min Read
Mahabharat
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Mahabharat Characters

Contents
महाभारत की रचनाभगवद गीतामहाभारत के मुख्य पात्रश्रीकृष्णभीष्म पितामहगुरु द्रोणाचार्यकृपाचार्यकर्णपांडव

Mahabharat भारतीय संस्कृति और इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। इसे दुनिया का सबसे बड़ा महाकाव्य माना जाता है, जिसमें 100,000 से भी अधिक श्लोक हैं। महाभारत सिर्फ एक युद्ध की कहानी नहीं है, बल्कि यह धर्म, कर्तव्य, नैतिकता, जीवन के आदर्शों और मानवीय संबंधों का गहरा संदेश देती है।

महाभारत की रचना

महाभारत की रचना महर्षि वेदव्यास ने की थी। इसकी कथा मुख्य रूप से कौरवों और पांडवों के बीच हुए कुरुक्षेत्र युद्ध पर आधारित है। यह दो भाइयों की संतानों के बीच सत्ता, धरती और सम्मान की लड़ाई थी, लेकिन इसके साथ ही इसमें जीवन के कई महत्वपूर्ण सबक भी छिपे हुए हैं।

भगवद गीता

भगवद गीता सनातन धर्म का महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसमे महाभारत के दौरान अर्जुन और श्रीकृष्ण के बीच का संवाद है। भगवद गीता हमें जीवन में सही दिशा दिखाने और धर्म का पालन करने की प्रेरणा देती है। अर्जुन जब युद्ध में अपने कर्तव्यों को लेकर दुविधा में थे, तब श्रीकृष्ण ने उन्हें जीवन के सत्य और कर्मयोग का उपदेश दिया।

महाभारत के मुख्य पात्र

श्रीकृष्ण

श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के अवतार थे। इनकी माता का नाम देवकी व पिता का नाम वसुदेव था। समय-समय पर श्रीकृष्ण ने पांडवों की सहायता की। युद्ध के दौरान श्रीकृष्ण ने ही सबसे बड़े रणनीतिकार की भूमिका निभाते हुए पांडवों को विजय दिलवाई। श्रीकृष्ण की योजना के अनुसार ही पांडवों ने राजसूय यज्ञ किया था। उसी यज्ञ में श्रीकृष्ण ने शिशुपाल का वध किया था।

श्रीकृष्ण ही शांति दूत बनकर कौरवों की सभा में गए थे, और पांडवों की ओर से पांच गांव मांगे थे। युद्ध के प्रारंभ में जब अर्जुन कौरवों की सेना में अपने प्रियजनों को देखकर श्रीकृष्ण से युद्ध न करने का आग्रह किया, तब श्रीकृष्ण ने ही उन्हें गीता का उपदेश दिया था। अश्वत्थामा द्वारा छोड़ गए ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से जब उत्तरा (अभिमन्यु की पत्नी) का पुत्र मृत पैदा हुआ, तब श्रीकृष्ण न उसे अपने तप के बल से जीवित कर दिया था।

श्रीकृष्ण को मिला श्राप – युद्ध समाप्त होने के बाद जब धृतराष्ट्र, गांधारी, कुंती आदि कुरुकुल की स्त्रियां कुरुक्षेत्र आईं तो यहां अपने पुत्रों, पति व भाई आदि के शव देखकर उन्होंने बहुत विलाप किया। अपने पुत्रों के शव देखकर गांधारी थोड़ी देर के लिए अचेत (बेहोश) हो गई। होश आने पर गांधारी क्रोध में अपने पुत्रो एवं महाभारत युद्ध का दोष श्रीकृष्ण को दिया और कहा कि तुम चाहते तो युद्ध रोक सकते थे, लेकिन तुमने ऐसा नहीं किया।

ऐसा कहकर गांधारी ने श्रीकृष्ण को श्राप दिया कि जिस तरह मेरे सामने मेरे वंश कौरव का नाश हुआ, ठीक उसी तरह तुमहारे सामने तुमहारे वंश यदुवंश का भी नाश होगा और तुम कुछ नही कर सकोगे। गांधारी के इस श्राप के कारण ही, यदुवंश के सभी लोग आपस में लड़कर मर गए, माना जाता है कि महाभारत के युद्ध के कुछ सालों बाद गांधारी का श्राप सिद्ध हुआ और पूरी द्वारिका नगरी पानी में डूबकर समाप्त हो गई।

भीष्म पितामह

भीष्म पितामह को महाभारत का सबसे प्रमुख पात्र हैं, क्योंकि भीष्म पितामह ही महाभारत के एकमात्र ऐसे पात्र थे, जो प्रारंभ से अंत तक इसमें बने रहे। भीष्म के पिता का नाम राजा शांतनु एवं माता देवनदी गंगा थीं। भीष्म का मूल नाम देवव्रत था। राजा शांतनु जब सत्यवती पर मोहित हुए तब अपने पिता की इच्छा पूरी करने के लिए देवव्रत ने सारी उम्र ब्रह्मचारी रह कर हस्तिनापुर की रक्षा करने की प्रतिज्ञा ली और सत्यवती को ले जाकर अपने पिता को सौंप दिया। पिता शांतनु ने देवव्रत को इच्छा मृत्यु का वरदान दिया। देवव्रत की इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही उनका नाम भीष्म पडा।

पांडवों को बताया था अपनी मृत्यु का रहस्य– युद्ध में जब पांडव भीष्म को पराजित नहीं कर पाए तो उन्होंने जाकर भीष्म से ही इसका उपाय पूछा। तब भीष्म पितामह ने बताया कि तुम्हारी सेना में जो शिखंडी है, वह पहले एक स्त्री थी, बाद में पुरुष बना। अर्जुन शिखंडी को आगे करके मुझ पर बाणों का प्रहार करे। वह जब मेरे सामने होगा तो मैं बाण नहीं चलाऊंगा। इस मौके का फायदा उठाकर अर्जुन मुझे बाणों से घायल कर दे। पांडवों ने यही युक्ति अपनाई और भीष्म पितामह पर विजय प्राप्त की। युद्ध समाप्त होने के 58 दिन बाद जब सूर्यदेव उत्तरायण हो गए तब भीष्म ने अपनी इच्छा से प्राण त्यागे।

गुरु द्रोणाचार्य

कौरवों व पांडवों को अस्त्र-शस्त्र चलाने की शिक्षा गुरु द्रोणाचार्य ने ही दी थी। द्रोणाचार्य महर्षि भरद्वाज के पुत्र थे। महाभारत के कथा अनुसार एक बार महर्षि भरद्वाज जब सुबह गंगा स्नान करने गए, वहां पर उन्होंने घृताची नामक अप्सरा को जल से निकलते देखा। यह देखकर उनके मन में विकार आ गया और उनका वीर्य स्खलित होने लगा। यह देखकर उन्होंने अपने वीर्य को द्रोण नामक एक बर्तन में संग्रहित कर लिया। उसी से द्रोणाचार्य का जन्म हुआ।

जब द्रोणाचार्य शिक्षा ग्रहण कर रहे थे, तब उन्हें पता चला कि भगवान परशुराम ब्राह्मणों को अपना सर्वस्व दान कर रहे हैं। तब द्रोणाचार्य भी उनके पास गए और उनको अपना परिचय दिया। द्रोणाचार्य ने भगवान परशुराम से उनके सभी दिव्य अस्त्र-शस्त्र मांगा एवं उसे प्रयोग की शिक्षा ली। द्रोणाचार्य का विवाह कृपाचार्य की बहन कृपी से हुआ था।

गुरू द्रोणाचार्य का वध – कौरव-पांडवों के युद्ध में द्रोणाचार्य कौरवों की ओर थे। जब पांडव किसी भी तरह उन्हें परास्त नहीं कर पाए तो उन्होंने गुरु द्रोणाचार्य के वध की योजना बनाई। उस योजना के अनुसार भीम ने अपनी ही सेना के अश्वत्थामा नामक हाथी को मार डाला और द्रोणाचार्य के सामने जाकर जोर-जोर से चिल्लाने लगे कि अश्वत्थामा मारा गया। गुरू द्रोणाचार्य के पुत्र का नाम भी अश्वत्थामा था तो वह अपने पुत्र की मृत्यु को सच मानकर अपने अस्त्र नीचे रख दिए और अपने रथ के पिछले भाग में बैठकर ध्यान करने लगे। अवसर देखकर धृष्टद्युम्न ने तलवार से गुरु द्रोण का वध कर दिया।

कृपाचार्य

कृपाचार्य कौरव व पांडवों के कुलगुरु थे। इनके पिता का नाम शरद्वान था, वे महर्षि गौतम के पुत्र थे। महर्षि शरद्वान ने घोर तपस्या कर कई दिव्य अस्त्र एवं धनुर्विद्या में निपुणता प्राप्त की। यह देखकर देवराज इंद्र भी घबरा गए और उन्होंने शरद्वान की तपस्या तोडने के लिए जानपदी नाम की अप्सरा भेजी।

इस अप्सरा को देखकर महर्षि शरद्वान का वीर्यपात हो गया। उनका वीर्य सरकंड़ों पर गिरा, जिससे वह दो भागों में बंट गया। उससे एक कन्या एवं एक बालक उत्पन्न हुआ। वही बालक कृपाचार्य एवं कन्या कृपी के नाम से प्रसिद्ध हुई। महाभारत के अनुसार युद्ध के बाद कृपाचार्य जीवित बच गए थे।

कृपाचार्य है अमर – धर्म ग्रंथों में जिन 8 अमर महापुरुषों का वर्णन है, कृपाचार्य भी उनमें से एक हैं। इससे संबंधित एक श्लोक भी प्रचलित है-

अश्वत्थामा बलिव्यासो हनूमांश्च विभीषणः। कृपः परशुरामश्च सप्तएतै चिरजीविनः II

सप्तैतान् संस्मरेन्नित्यं मार्कण्डेयमथाष्टमम्। जीवेद्वर्षशतं सोपि सर्वव्याधिविवर्जित ।I

अर्थात:- अश्वत्थामा, राजा बलि, व्यासजी, हनुमानजी, विभीषण, कृपाचार्य, परशुराम व ऋषि मार्कण्डेय- ये आठों अमर हैं।

कर्ण

राजकुमारी कुंती ने एक पूरे वर्ष तक ऋषि दुर्वासा की सेवा की, जब वह उनके पिता के महल में मेहमान थे। ऋषि उनकी सेवा से प्रसन्न होकर उन्हें वरदान दिया, जिसमें कुंती किसी भी देवता का आवाहन कर सकती है, और उन देवताओं से संतान प्राप्त कर सकती है। वह संदेह में थीं कि क्या वरदान वास्तव में प्रदान होगा, इसलिए कुंती, उसे परीक्षण करने का निर्णय लिया और सूर्य देवता का आवाहन किया। मंत्र की शक्ति के प्रभाव में, सूर्य ने उन्हें अपने पिता के रूप में एक ऐसे पुत्र को दिया, जो अपने सूर्य के समान उज्ज्वल और बलवान था। इस प्रकार, कर्ण का जन्म हुआ। सूर्य ने कर्ण को एक कवच और एक कुण्डल भी दिया, जो अमृत में डुबे थे, जो उसे जन्म से ही उनके साथ थे।

दान में दिया कवच-कुंडल – इंद्र जानते थे कि जब तक कर्ण के पास कवच-कुंडल है, उससे कोई भी पराजित नहीं सकता। तब एक दिन इंद्र सूर्य उदय के समय ब्राह्मण का रूप धारण कर कर्ण के पास आए और दान में कवच-कुंडल मांग लिया। तब कर्ण ने ब्राह्मण से कहा कि आप स्वयं देवराज इंद्र हैं, ये बात मैं जानता हूं। आप स्वयं मुझसे याचना कर रहे हैं, इसलिए मैं आपको अपने कवच-कुंडल अवश्य दूंगा, लेकिन इसके बदले आप को भी मुझे वह अमोघ शक्ति देनी होगी। देवराज इंद्र ने कर्ण को वो अमोघ शक्ति दे दी और कहा कि इस शक्ति का प्रयोग तुम सिर्फ एक ही बार कर सकोगे। कर्ण ने देवराज इंद्र की बात मानकर वह अमोघ शक्ति ले ली और कवच-कुंडल इंद्र को दे दिया।

पांडव

महाराज पांडु के पांचों पुत्र पांडव कहलाए। एक बार राजा पांडु शिकार खेल रहे थे। उस समय किंदम नामक ऋषि अपनी पत्नी के साथ हिरन के रूप में सहवास कर रहे थे। उसी अवस्था में राजा पाण्डु ने उन पर बाण चला दिए। मरने से पहले ऋषि किंदम ने राजा पांडु को श्राप दिया कि जब भी वे अपनी पत्नी के साथ सहवास करेंगे तो उसी अवस्था में उनकी मृत्यु हो जाएगी। ऋषि किंदम के श्राप से दुःखी होकर राजा पांडु ने राज-पाट का त्याग कर दिया और वनवासी हो गए।

कुंती और माद्री भी अपने पति के साथ ही वन में रहने लगीं। जब पांडु को ऋषि दुर्वासा द्वारा कुंती को दिए गए मंत्र के बारे में पता चला तो उन्होंने कुंती से धर्मराज का आवाहन करने के लिए कहा जिसके फलस्वरूप धर्मराज युधिष्ठिर का जन्म हुआ। इसी प्रकार वायुदेव के अंश से भीम और देवराज इंद्र के अंश से अर्जुन का जन्म हुआ। कुंती ने यह मंत्र माद्री को बताया। तब माद्री ने अश्विनकुमारों का आवाहन किया, जिसके फलस्वरूप नकुल व सहदेव का जन्म हुआ।

युधिष्ठिर – युधिष्ठिर पांडवों में सबसे बड़े थे। ये धर्म और नीति के ज्ञाता थे। धर्म का ज्ञान होने के कारण ही इन्हें धर्मराज भी कहा जाता था। पांडवों में सिर्फ युधिष्ठिर ही ऐसे थे जो सशरीर स्वर्ग गए थे।

भीम – भीम युधिष्ठिर से छोटे थे। ये महाबलशाली थे। महाभारत के अनुसार युद्ध के दौरान भीम ने सबसे ज्यादा कौरवों का वध किया था। दुःशासन व दुर्याेधन का वध भी भीम ने ही किया था।

अर्जुन – अर्जुन पांडवों में तीसरे भाई थे। ये देवराज इंद्र के अंश थे। महाभारत के अनुसार ये पुरातन ऋषि नर के अवतार थे। भगवान श्रीकृष्ण का इन पर विशेष स्नेह था। अर्जुन ने ही घोर तपस्या कर देवताओं से दिव्यास्त्र प्राप्त किए थे। भीष्म, कर्ण, जयद्रथ आदि का वध अर्जुन के हाथों ही हुआ था।

नकुल व सहदेव – नकुल व सहदेव पांडवों में सबसे छोटे थे। ये अश्विनकुमार के अंश थे। सहदेव ने ही शकुनि व उसके पुत्र उलूक का वध किया था।

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डिसक्लेमर- इस लेख में निहित किसी भी जानकारी/सामग्री/गणना की सटीकता या विश्वसनीयता की गारंटी नहीं है। विभिन्न माध्यमों/ज्योतिषियों/पंचांग/प्रवचनों/मान्यताओं/धर्मग्रंथों से संग्रहित कर ये जानकारियां आप तक पहुंचाई गई हैं। हमारा उद्देश्य महज सूचना पहुंचाना है, इसके उपयोगकर्ता इसे महज सूचना समझकर ही लें। इसके अतिरिक्त, इसके किसी भी उपयोग की जिम्मेदारी स्वयं उपयोगकर्ता की ही रहेगी।

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